7/31/2020

Kundalini Jaagaran ka Saral tareeka kya hota hai ?

Kundalini Jaagaran का सरल तरीका सीखकर हम अपने जीवन के कष्टों को ही नहीं अपितु मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य को भी सरलता और आसानी से प्राप्त कर सकता है.


Flow of Cosmic Energy
The flow of Cosmic Energy

Kundalini Jaagaran

श्रृष्टि चक्र 

 

ओंकार मन्त्र में सारी श्रृष्टि का सार समाया हुआ है.

अ + उ + म

अकार + उकार + मकार

निर्माण + पालन + संहार

परब्रहम

परब्रहम शब्द में ईश्वरीय शक्ति का सार समाया हुआ है

ब्रह्मा + विष्णु + महेश

जीव और प्रकृति का सम्बन्ध :-

यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे.

अर्थात जैसा यह ब्रह्मांड है वैसा ही यह पिंड / शरीर है.

अर्थात जैसे इस ब्रह्माण्ड का क्रमिक संचलन होता है ठीक वैसे ही हमारे शरीर का भी निर्वहन होता है.

भाषा में थोडा सा ट्विस्ट है क्योंकि व्याख्या बहुत लम्बी और अनंत है !!

शरीर का उर्जा और जीवन चक्र :-


हम जो जो भी पदार्थ भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं वह सब पेट में आमासय में पक-कर रस रूप में परिवर्तित होकर विल्ली द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं. यह अवशोषित धातुएं रक्त के माध्यम से शरीर की मूलभूत इकाई cell अर्थात उतकों तक पहुचती है. जिससे शरीर की प्राथमिक इकाईयां पोषित होती है.

जिनके पोषण से शरीर के सम्बंधित अंग-प्रत्यंग उर्जावान बनते हैं और हमारा पूरा शरीर शक्तिशाली बनता है. इससे हम अपने जीवन के दैनिक कार्यों को सम्पादित करते करते, बड़े होकर सफल नागरिक बनते हैं.

उपरोक्त वर्णन सामान्य जैविक वर्णन है.

तो सामान्य व विशेष में क्या फर्क है ?? उसे समझने के लिए हम पहलवान के उदाहरण से समझते हैं, कि वह कैसे जीवन में लम्बा , . . . . . . . दैनिक और नियमित अभ्यास और साधना करके एक सफल पहलवान बनता है जो अपने वर्ग में सफलता के कीर्तिमान स्थापित करता है.

ठीक इसी तरह से सभी लोग प्रयास करके अपने अपने क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़ते हैं और जीवन यापन करते हैं.

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ईश्वरीय शक्ति का केंद्र:- 


सामान्य ज्ञान से हमे यह आभाष तो होता है, कि कुंडलिनी जागरण कोई बड़ी आश्चर्यजनक चीज तो है.
पर यह नहीं पता कि, वास्तव में यह ईश्वरीय शक्ति जितनी विशाल है. जिसके प्रवाह को नियंत्रित करने की पात्रता अर्जित करने हेतु साधक नित्य प्रति नियम से साधना करके इसे साधते हैं.

इसकी सिद्धि प्राप्त व्यक्ति नश्वर संसारिकता से उपर उठ जाता है. उसे जीते जी परमानंद की अवस्था की प्राप्ति हो जाती है.

परिणाम स्वरूप, सामान्य जीवन, पीछे छूटने लगता है.

सामान्य व्यक्ति का जीवन:-

एक सामान्य जीवन में हम . . . . . . . !! हम काल चक्र के वेग से जीवन यापन करते हुये, शिशु और योवनावस्था के सुख भोगते हुये, अधेड़ अवस्था में जब प्रवेश करते हैं.. . . . . . .!! तब हमारी स्थिति ठीक वैसी ही होती है, जैसी की मैराथन थावक की जिसने घंटों दौडकर, बस अभी अभी Finish लाइन पार करी है.

ठीक लगभग उसी स्थिति में हम सभी की आखें भी खुलती हैं. और हम आकलन लगाते हैं, कि हमने अभी तक  क्या पाया और क्या खोया है ??

जो पाया वो जीवन जीने के लिए अनिवार्य था और निश्चित ही है भ, पर जीवन की इस आपाधापी में जो रोग, दुःख और अशांति जीवन में आई वो कब और कहाँ से आयी . . . . ??? सोच- सोचकर जी घबराने लगता है. दूसरों के अनुभवों को टटोलते हैं तो पता चलता है कि शर्मा जी, वर्मा जी और सभी जी भी अपने जीवन में शान्ति की तलाश में Introspaction / आत्ममंथन कर रहे हैं.

Kundalini Jaagran aur Shareer ke shakti Kendra
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कुण्डलिनी  जागरण ka Saral tareeka :-

सामान्य जीवन में कई लोगों को, योग के बारे में थोडा बहुत जानकारी तो होती ही है. इसी जिज्ञासा में एक सम्पूर्ण प्रश्न "  कुण्डलिनी  जागरण " का मन में कौंधता है. जिसके उत्तर का आभाष सा प्रतीत तो होता है पर स्पष्टता नहीं आ पाती है.

इसको समझने के लिए शुरुवात में ही ब्रह्माण्डीय और शारीरिक ऊर्जा के संचरण के क्रम का वर्णन कर दिया गया है. हमारे शरीर में आठ चक्र और नौ द्वार हैं जिसके भीतर वह ईश्वरीय शक्ति कुण्डलिनी मारके बैठी है.
ठीक जैसे ईश्वर निराकार, निर्पेक्ष्य, भाव से कर्ता और अकर्ता स्वरूप में ब्रह्माण्ड के कण कण में व्याप्त है. उसी का सूक्ष्म अंश ठीक उसी भाव से हमारे शरीर के मूलाधार चक्र में अवस्थित होता है.

!! कुण्डलिनी शक्ति का जागरण योगाभ्यास से किया जाता है !!

भगवान् को हम उपासना से प्रसन्न कर सकते है. यदि ईश्वर के उपासना के भाव में त्रुटी हो जाती है तो वह एक असफल उपक्रम ही साबित होता है. यही कारण है की आज एक बड़ा वर्ग ईश्वर की भक्ति को ढकौसला ही मानता हैं. किन्तु सच्चे मनोभाव से यदि योग प्राणायाम में प्रवर्त हुआ जाय तो साधक बहुत जल्दी जल्दी सीडियां चड़ता चला जाता है.

मेरा व्यक्तिगत अनुभव :-


यहाँ मैं अपने स्वयं के अनुभव से यह कह सकता हूँ, कि मैंने बहुत ही सामान्य तरीके से केवल उत्सुकता वस योग का प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया था. Training Classes का समय भी प्रातः 4:30 से 7:30 का वीक डेज में और वीक एंड में 4:30 से 9:30 तक होता था. मैं इस मनोभाव से ज्वाइन करने गया था कि कभी कभी जाना होता होगा, जैसा की सामान्यतया होता ही है. किन्तु आप विश्वास करिए की पहले दिन से ही बगैर 1 घंटे की अनुपस्थिति के पुरे 100 घंटे का प्रशिक्षण तकरीबन 30 विद्यार्थियों ने नॉन स्टॉप 25 दिनों में पूरा कर लिया.

ऐसा किसी दबाव में नहीं हुआ अपितु इसकी मुख्य वजह योग का आकर्षक व सुरुचिपूर्ण होना है. मुझे बताते हुए हर्ष है की योग सीखने जैसा आनन्द मुझे किसी अन्य शिक्षण में आज तक नहीं प्राप्त हुआ.

इसमें एक महत्वपूर्ण समझने वाली बात यह है कि, सदौगुनी व्यक्तियों के लिए योग और आध्यात्म के पथ पर आगे बदना रजोगुणी तमोगुणी व्यक्तियों की तुलना में अधिक आसान होता है. योग को सीखने और धारण करने के लिए व्यक्ति का स्वभाव त्याग करने की मनोवृत्ति वाला होना आवश्यक है. जैसा की आज के जीवन में बहुत कठिन है.

सामान्य व्यक्ति के जीवन का निष्कर्ष :-


जब तक व्यक्ति जीवन को संग्राम की तरह लडेगा, तब तक उसमे त्याग और मानवीय गुणों के प्रति आदर का भाव उत्पन्न नहीं होता. उसकी आतंरिक शक्तियां स्वयं ही एक दुसरे के विरुद्ध संघर्ष करते करते व्यक्ति के मानवीय गुणों का नाश करती हैं, जो व्यक्ति को अधोन्मुखी करदेती है.

यही कारण है की आज अधिकांश सफल व्यक्ति जीवन जीने के संघर्ष में तो अव्वल दर्जे में सफल हो जाते हैं, पर मनुज जन्म के अपने उद्देश्य व परम लक्ष्य की पूर्ति में, असफल होकर, स्वय पर ही बोझ बन जाते हैं.

आदर्श जीवन :- 

अतः हर दृष्टि से मनुष्य को अपने उद्धार के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए. इन्द्रिय सुखों के स्थान पर जीवन में मानवीय गुणों के विकास हेतु प्रयासरत रहना चाहिए. इसके लिए व्यक्ति को समय रहते योग को अंगीकार करलेना चाहिए. योग से स्थिर चित्त हुये व्यक्ति को सुख, प्रफुल्लित नहीं करते हैं और ना ही दुःख, विक्षिप्त करते हैं. वह समभाव को साध लेते हैं. योग की साधना से कुंडलिनी का जागरण हो जाता है और साधक को अनेकों विभूतियाँ प्राप्त होती हैं. उसका आभामंडल विशाल और विराट हो जाता है.

कुल जमा व्यक्ति के मानवीय गुण महामानव के गुणों में रूपांतरित होने लगते हैं. यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया है. साधक चरणबद्ध तरीके से धीरे धीरे रूपांतरित होता है. साधक धीरे धीरे अखण्ड आनन्द की अवस्था में प्रविष्ट होता है और मनुज जन्म के अपने उद्देश्य को सहज ही प्राप्त कर लेता है.

निष्कर्ष :-


यह जानना बहुत रोचक है की सिद्ध पुरुष मरा नहीं करते अपितु शरीर त्यागते हैं. अर्थात अपनी आयु पूर्ण करके जब यह शरीर पक जाता है तो ठीक, जैसे पका हुआ फल डाल से अलग होकर अपने श्रोत को त्याग देता है. ठीक उसी क्रिया से आत्मा इस शरीर को त्यागकर अपने मूल श्रोत में समाविष्ट हो परमपद को प्राप्त करती है. और व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है. अतः हम सभी को योग की कुण्डलिनी जागरण की विधि से अपने जीवन उद्देश्यों को पूर्ण करना चाहिए.

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